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शिरीष के संसार में
 
आ गये फिर से पलट कर
हम शिरीषों के मुहल्ले

रौद्र दुख या ताप में
जीना-निभाना भी कला है
हम इन्हीं से सीख कर ही
चेतना-सुर तानते थे
क्या कहें कैसा सहज था
वो समर्पित भाव-बन्धन
फूल-फलियों-पत्तियों की
भावना को जानते थे

आग बरसाता विषम मौसम
कठिन वातावरण हो
इन शिरीषों ने सिखाये हैं
खिलाना आस कल्ले!

चौंधियाती-चकचकाती
रोशनी से त्रस्त जीवन
मीन छिछले जल पड़ी ज्यों
चिलचिलाती दोपहर में!
क्षुब्ध मन-संसार
एकाकी समस्याएँ कई हैं
इस उमस से त्राण पायें
छोड़ कोलाहल शहर में

इन शिरीषों के गले मिल
डालियों से झूल जायें
गाँव की पगडंडियों से
याद भी निकले धड़ल्ले!

कण्ठ चाहे मौन होते
कनखियाँ वाचाल होतीं
दोपहर निश्शब्द सोती
किन्तु मौसम सुर लगाता
गदबदाया मन मुलायम
गुलमुहर के नेह भीगे
लाल गालों पर अमलतासों
पगी हल्दी छुआता

भाग कर पहुँचें शिरीषों
के मनोहर माँडवे में
और उसके फूल के
संसार में हों हम निठल्ले

- सौरभ पांडेय

१५ जून २०
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