वह
ध्यानमग्न अवधूत बना
हौले हौले से डोले रे।
प्रचंड धूप में खड़ा शिरीष
मनोभाव ना खोले रे
आई देखो रुत बासंती
शिरीष ले रहा अँगड़ाई
पावस की रिमझिम बूँदों में
सावन से करता कुड़माई
मनभावन खुशबू से लिपटे
श्वेत गुलाबी चोले रे
क्षीण तंतु हैं बिखरे बिखरे
कैसे सहें अलिपद का भार
जीवटता की प्रतिमूरत वो
आँधियों संग करे तकरार
मृदु कठोर का अद्भुत संगम
मौनी बनकर बोले रे
सूखे बीज
बजे झाँझर से
लम्बी लम्बी फलियों में
सघन छाँव अरु भाव अनूठे
भरता शिरीष नित कलियों में
नवजात पालनों में टँगकर
शुद्ध पवन यह तोले रे
चित्रकला में शाकुन्तल को
नृप ने जब जब साकार किया
रह जाता कुछ छूटा छूटा
जिसपर चिंतन सौ बार किया
बन कर्णफूल उकरे शिरीष
लगते कुण्डल भोले रे
- ऋता शेखर मधु
१५ जून २०१६