अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

शिरीष तुम सखा हमारे
 
ओ शिरीष,
तुम सखा हमारे,
तुम्हें भुला ना पाएँगे!

तुम्हें धूप से
नहीं शिकायत,
धूप तुम्हें दुलराती है!
गरम हवाएँ अपनेपन से,
तुम्हरी लटें हिलाती हैं!
कहती हैं,
सूखी फलियों का,
हम झुनझुना बजाएँगे!

उल्लू भी
बसते हैं तुममें,
तोते भी भरते किलकारी!
भाँति-भाँति के कीट-पतंगे,
चखते हैं मधु की तरकारी!
कहते हैं,
अपने जीवन का,
हर पल यहाँ बिताएँगे!

धरती देती
तुमको पानी,
तेरे फूल खिलाने को!
या फिर अपना गात सजाकर,
अपना मन महकाने को!
संत छाँव में
आकर तुम्हरी,
कुटिया एक बनाएँगे!

- रावेंद्रकुमार रवि
१५ जून २०
१६

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter