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ये शिरीष के फूल |
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जेठ
दुपहरी तेज हवायें
गरमी, आँधी, धूल
ऐसे मौसम में हँसते हैं
ये शिरीष के फूल
कोमल इतने, पंछी के
पैरों को सह ना पायें
लेकिन बैठे योगी से
सूरज से आँख मिलायें
डाली पर खिल खिल करते हैं
सारी पीड़ा भूल
हम सबके मन में भी ऐसे
उठते रोज बवंडर
कितनी उलझन के अंधड़ हैं
सबके अन्दर अन्दर
आओ फूल खिलाएँ मन में
कितने भी हों शूल
कठिन समय में भी मुस्काना
कोई इनसे सीखे
काली रातों में लगते हैं
उजले सपन सरीखे
खुश रह सकते हो तुम, चाहे
दुनिया हो प्रतिकूल
- डॉ. प्रदीप शुक्ल
१५ जून २०१६ |
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