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ओ शिरीष
 
ओ ! शिरीष
किस जिज्ञासा में रहते हो तल्लीन
धूम मचा कर क्यों कविकुल का
हृदय रहे हो छीन

कठिन समय में भी
कोमल तन
फूल तुम्हारे खिलते
वसुधा के
उत्तल- अवतल पर
दृढ प्रतिज्ञ हो मिलते

रंग ओढ़ कर लास्य रचाते
हो तुम बड़े प्रवीण

तंतु तंतु में
स्वर्णिम आभा
संदेहों से दूर
मौसम के
अक्खड़पन में भी
बजा रहे संतूर

धरती से आकाश जोड़ते
हो किसके आधीन

धर किरीट
माथे पर अपने
ऐसे गात भरे
रह-रह कानन में
शिरीष ! बस
शाकुन्तल बिखरे

पर्व मना कर झरे निमिष में
बिछे सदृश कालीन

- निर्मल शुक्ल

१५ जून २०
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