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वह शिरीष
 

वह शिरीष अब बहुत दुखी सा
मन ही मन जलता है

वर्षा में कम फूल खिलाता
सर्दी में कम फलियाँ
शनैः शनैः सब प्रियजन उसके
भूले उसकी गलियाँ
अवसादों का परजीवी अब
पत्तों पर पलता है

कभी नहीं माँगा उसने कुछ
पानी खाद किसी से
उसने चाहा अपनापन जो
दे दे उसे खुशी से
मिला परायापन जो बेबस
शाखों को खलता है

इठलाते फूलों हिरवे
पत्तों की वो तरुणाई
लेता था वो कैसे अपने
यौवन की अँगड़ाई
असमय बुढ़ा गया है पूरा
जीवन रवि ढलता है

नेह शक्ति तो सदा जिला दे
जो मरने वाला हो
वहीं उपेक्षा मृत कर दे
चाहे अमृत प्याला हो

सत्य यही है इस जीवन का
जुग जुग से चलता है।।

- डॉ अखिल बंसल  
 
१५ जून २०
१६

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