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ऐसे फूल शिरीष हैं
 

तपे दुपहरी जेठ में, जले धरा नभ प्राण।
हँस-हँस खिले शिरीष पर, जीवन्तता प्रमाण।

फूलों से लकदक खड़ा, कहता दिखे शिरीष
काल भले विपरीत हो, मत झुकने दो शीश।

डट आँधी तूफान में, करते जाएँ कर्म
दुख-सुख में समभाव हों, यह शिरीष सा धर्म

भार भ्रमर का सह सकें, खग मत जाना पास
ऐसे पुष्प शिरीष हैं, कह गये कालिदास

परिवर्तन की चाल को, जो ना समझे मीत
फल शिरीष की भाँति वो, सहे वेदना 'रीत'।

- परमजीत 'रीत'  
     
१५ जून २०
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