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          स्वयं तुम रजनीगंधा

 

 

रूप तुम्हारा गुलमोहर है
और स्वयं तुम रजनीगंधा

थी चौखट गुलज़ार बहुत तब
दम भरती थी महफ़िल सारी
लगता था जग मुट्ठी में है
होते थे जयकारे भारी
सुख में होते लोग बहुत पर-
दुख में एक तुम्हारा कंधा

घोर शीत में रश्मिरथी तुम
और ग्रीष्म में शीतल छाया
पतवार बनी मझदारों में
पाकर तुमको सबकुछ पाया
पथ के कंटक बीने तुमने-
और रहा मैं मद में अंधा

नूपुर हो तुम तप्त हृदय की
नूपुर से बजती रुनझुन तुम
अन्तर्मन की एक मूर्ति प्रिय
जीवन-गिटार की सरगम तुम
तुमसे मेल युगों का सजनी-
नीलकमल हो तुम्हीं सुगंधा

- डॉ शैलेश गुप्त 'वीर'
१ सितंबर २०२१

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