जलता बदन साँस
भारी है
खाँसी की ठुनकी
महक नहीं रजनीगंधा की
और न लहसुन की
तकिये के नीचे सूखा सा
पड़ा हुआ गजरा
आँखों की कोरों से बहकर
सूख गया कजरा
अस्पताल से खबर नहीं है
दो दिन से उनकी
कमरे में है साथ हमारे
चिपका बैठा डर
दीवारों के भीतर छिपकर
काँप रहा है घर
और शहर में राग रागिनी
हैं मातम धुन की
पल्स ऑक्सीमीटर जब भी
नब्बे पर ठहरा
मन पर छाया अंधकार
तब और हुआ गहरा
चलाचली है इस गोले से
शायद पाहुन की
- प्रदीप कुमार शुक्ल
१ सितंबर २०२१ |