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हे कदंब के वृक्ष






 
हे कदंब के वृक्ष!
तुम्हारे अंदर गहन समंदर है।
अमर-प्रेम पावन-समीर
उन्मुक्त सदा बहता है।

तेरी फैली बाहों में

संध्या होते ही चंदा
झुरमुट में छिप जाता है।
फुनगी-फुनगी चुंबन धर
प्यार जता जाता है।

कुनकुनी धूप में दिनकर
यमुना तट पर आता है।
कमलों की पलकें खोले
यादों में कुछ कहता है।

तेरी शीतल छाया में

पत्तों-पत्तों वंशी धुन
डालीं-डालीं में रुनझुन।
कान्हा की छेड़ा खानी
राधा की मनमानी गुन।

गोकुल की राग कहानी
दर्शन ग्रंथों की बानी।

--निर्मला जोशी
१३ जुलाई २००९

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