कदंब के पेड़ तले
आओ झूले डालें।
रंग बिरंगी रस्सी लाएँ
झूले में पाटा लगवाएँ।आसपास से सखियाँ आईं
हँसी की फुलझडि़याँ लाईं।
कदंब बड़ा खुश था
खुशी के मारे झूम रहा था।
अपनी शाखें, पत्ते पसारकर
मानो बच्चों को बाहों में भरकर
दे रहा था अपना दुलार।
बड़े बूढ़े भरी दुपहरिया में
असीस रहे थे कदंब को।
उसकी शीतल छाँव में
तन शीतल था, मन शीतल था।
आज यह सब याद आया
कहाँ गया कदंब, कहाँ गई छाया?
इस पत्थर के शहर ने
सब काट दिया, सब लील लिया।
--मधु अरोड़ा
१३ जुलाई २००९ |