आओ देखो,
यह कदम्ब का चित्र है...कभी धरा पर ये होते थे।
इनकी शीतल हरियाली में,
पथिक थकान सकल खोते थे।
पंछी इनकी शाखाओं पर
कर कलरव सपने बोते थे।
नष्ट किया
मानव ने इनको-
जो न किसी का मित्र है...
राधा और कृष्ण मिलते थे।
गोल-गोल फूलों से चेहरे,
गोप-गोपियों के खिलते थे।
मधुर बाँसुरी की धुन सुनकर
मुग्ध चर-अचर सब होते थे।
समय इन्हें भी
लील गया है - नहीं झूठ,
यह किस्सा बहुत विचित्र है...
मलिन हुई यमुना की धारा,
निर्दय मानव काट न पाया
अपने ही स्वार्थों की कारा।
ऊसर-बंजर कर धरती को
रोता खुद निर्मम हत्यारा।
टूटी शीशी
से जीवन में
'सलिल' न बाकी इत्र है...
--आचार्य संजीव सलिल
१३ जुलाई २००९ |