टेर वंशी की
यमुना के पार
अपने-आप झुक आई
कदम की डार।
द्वार पर भर, गहर,
ठिठकी राधिका के नैन
झरे कँप कर
दो चमकते फूल।
फिर वही सूना अंधेरा
कदम सहमा
घुप कलिन्दी कूल!
अलस कालिंदी
अलस कालिन्दी--
कि काँपी
टेर वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार
अपने-आप
झुक आई कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले--
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद।
फिर-- उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!--
पार-- धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!
--अज्ञेय
१३ जुलाई २००९ |