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पीपल की छाँव
 

 

पीपल की छांव कच्चे मकां मन को भा गए,
घबरा गए शहर से तो फिर गांव आ गए|

ऊंची इमारतों में भी मिलता नहीं सुकूं,
हम ज़िन्दगी के खेल में फिर मात खा गए|

मज़हब को मानते तो न करते मुझे तबाह,
वो कैसे लोग थे जो मेरा घर जला गए|

मजबूरियों के मोड़ पे हम आके रुक गए,
जाते हुए ये काफिले हमको रुला गए|

आये तो बहुत लोग, सहारा नहीं मिला,
बस बेबसी पे मेरी वो, आंसू बहा गए|

जूड़े में फूल टांक के, बैठी हो तुम कहीं,
घर भर महक उठा है कि तुम याद आ गए|

मेरी वफा को भूल गये हैं वो बेवफा,
कुछ बावफा 'सुबोध' को फिर आजमा गए|

-सुबोध श्रीवास्तव
२६ मई २०
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