अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

वो पलाश का पेड़

.

वो पलाश का पेड़,
अब बूढा हो चला है
देखा है कई बार,
थकी सी दोपहर को,
उसके तने से पीठ टिका, थकन मिटाते
पाया है कई बार,
कोमल पुष्पों का आलिंगन कर,
छाँव को उस पलाश के नीचे पसर जाते
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढा हो चला है
गंगा नदी को आराध्य बना,
नित्य ही पुष्पांजलि दिया करता था
अल्हड़ता से कुसुमित हो, नटखट बालक सा,
उन्मुक्त भावों का सन्देश दिया करता था
नव-विवाहिता की पालकी पर, पुष्पवर्षा कर,
'सदा सुहागन रहो' का आशीर्वाद दिया करता था
फाग के रंगों में घुलता, कभी पिसता,
त्यौहारों में हर चेहरे पर चहका करता था
बसंत ऋतु के आगमन पर प्रकृति पर,
चटख रंगों से हस्ताक्षर किया करता था
गहरे रंगों में अपनी कूची डुबा,
संध्या की ओढ़नी रंगा करता था
डाल-डाल पर नीड़ में कलोल से,
सांध्य-वंदना के समय गूँजा करता था
पुष्पों में ज्योति सा दैदीप्य लिये,
नित्य ही दीपदान किया करता था
जाड़ों में पात-विहीन हो ठूँठ सा हाथ जोड़े,
दैव्याभिशाप का पश्चाताप किया करता था
वो पलाश का पेड़,
जो अब बूढ़ा हो चला है,
इस वर्ष बसंत ऋतु पर हस्ताक्षर नहीं कर पायेगा
प्रकृति और प्रगति के द्वंद्व में वो हार जायेगा

-शिल्पा अग्रवाल
२० जून २०११

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter