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आशाओं
के पलाश |
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जंगल में
फैलती लाल फूलों की आग
मन की वीणा में बेसाख्ता ही
छेड़ती है एक अनजाना सा राग,
कैसे विमुख हो पाता है मन अपने ही भावों से,
अन्तर में पल रहे ज्वलंत
कालजयी-लाल लावों से?
कुछ पत्तियों में समेटे मुझे
सजाते हैं दुनिया को जो,
हाँ-जंगल में उगते पलाश ही तो है वो!
कभी यौवन का भड़कता उन्माद
तो कहीं बूढ़ी, बुझती हुई चिन्गारियों का नाद,
तो यूँ ही कभी बचपन का वह
चिन्तारहित शोर
मेरा 'पलाशित`,
अस्तित्व चहुँ ओर,
गर्मियों की ओस में भीगी
आग की हल्की सरसराहट,
हाँ-सुनो! यह है मेरे मन की आहट!!
कोमल लालिमा,
अद्वितीय सौन्दर्य
हरित सघनता,
सरल छाया
स्त्रीत्व के यौवन की तो है यह सारी माया।
हवाओं का झपटना,
पुश्पित लपटों का धरती से लिपटना
भौरों का कौतुक
तितलियों का शोर
पराग से सारगर्भित
उसकी हर लाल भोर,
क्या शिव क्या शिशु
नाचता था सभी के मन का मोर।
फिर कोरी कल्पना के पंखों से पंखुड़ियाँ उड़ी,
सामने था यथार्थ का अनंत आकाश।
काल का सर्पीला पाश!
बिछड़ी लालिमा में
जीवन का रास,
क्या यूँ ही हर कोई इतना अकेला है?
सघन सूनेपन में प्रस्फुटित चेहरों का एक मेला है।
इन्हीं घनी बस्तियों में ठहराव की तलाश,
एक बार फिर,
सूनेपन से दूर आशाओं के कुछ नये पलाश?
पलाशित स्त्रीत्व की 'पाशित` धारा,
शांत, कम्पित अग्नि धारा का मौन सहारा,
ज्वलन्त जीवन की यही अगन,
इसी के प्रेम में खिलना है
और रहना है मगन,
हाँ-खिलना है और
फैलना है इस लालिमा को,
दूर करे जीवन के तम को
कालिमा को!!
-शीबा राकेश
२० जून २०११ |
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