नीम का ये
पेड़
बाबा की निशानी है
इसी के नीचे हुई बेटी सयानी है
हरी पत्ती
हुए उसके हाथ पीले हैं
नयी फूटी कोंपलों के नयन गीले हैं
पीर माँ के द्वार की
बरसों पुरानी है
पड़े झूले
डाल जैसी
खुली बाँहों पर
धूप का है लेंस दादी की निगाहों पर
टहनियाँ हैं या कि चश्में
की कमानी है
है युगों से
समय के मसि और कागद सी
फेफड़ों में भर रही है हवा औषधि सी
मगर अपनी छाँव से
खुद ही विरानी है
पास के पाकड़
कभी सागौन वाले हैं
कई किस्से नीम की दातौन वाले हैं
घर नहीं है मगर घर की
राजधानी है
बड़े - बूढ़े
दरी डाले खाट डाले हैं
जल रही धरती निबौली के निवाले हैं
लग रहा परिवार का ही
एक प्राणी है
-यश मालवीय
२० मई २०१३