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बहुत आती याद निबिया
 

 

भीड़ में थकने लगे हैं अब शहर के पाँव
हो सके तो लौट आओ पास, मेरे गाँव

हैं यहाँ कितने घने कंक्रीट के जंगल
बहुत आती याद निबिया और ठंडी छाँव

भरभराकर ढही माटी से बनी बखरी
छल-कपट के कीच में गहरे सने हैं पाँव

खो गई निश्छल हँसी, वो सूरतें भोली
ज़िंदगी अब जुए जैसा खेल, हर दिन दाँव

ढोलकों की थाप निबिया तले वह उमंग,
चलो अपनापन तलाशें, पर कहाँ, किस ठाँव ?

-विश्वम्भर शुक्ल
२० मई २०
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