अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

आँगन वाली छाँव
 

 

सिकुड़ गई क्यों
धीरे – धीरे
आँगन वाली छाँव

वो आँगन का नीम,
जो सबका रस्ता तकता था
भरे जेठ में हाँक लगाता
सबको दिखता था
क्यों गुमसुम
जो देता था
सबके हिस्से की छाँव

इक दरवाजा था जिस घर में
चार हुए दरवाजे
सबके अपने अपने उत्सव
अपने बाजे - गाजे
आँगन को
सपनों में दिखते
नन्हें - नन्हें पाँव

धुआँ भरा कितना जहरीला
अब इस घर के अंदर
भीतर से बेहद बदसूरत
बाहर दिखते सुंदर
जबसे बूढ़ा
नीम सिधारा
सूना  अपना  गाँव

-रोहित रूसिया
२० मई २०
१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter