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याद आता है
 

 

दिन चढ़े बैसाख जब आँखें दिखाता है
नीम का वह पेड़ अक्सर याद आता है

भीम की सी देह अंगद सा जमाए पाँव
द्वार पर का सजग प्रहरी याद आता है

भोर होने को, समय खेती किसानी का
नीड़ से आवाज देना याद आता है

बूँद का मलहम खिजां या लू थपेड़ों में
अचल स्थितप्रज्ञ योगी याद आता है

साँझ को हुक्के चिलमची संग बाबा का
हूर का किस्सा सुनाना याद आता है।

राहगीरों पक्षियों को मुक्त हाथों से
छाँव का वैभव लुटाना याद आता है।

देह का 'अलमस्त' होकर दूसरों के हेतु
शिवि सरीखा दान देना याद आता है।

-रामशंकर वर्मा
२० मई २०
१३

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