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प्रासंगिकता
 

 

रात घिर आयी है
और वह निशब्द खड़ा है
बहुमंजिले के सामने

माचिस के डिब्बों में सुलगने लगी है रोशनी
क्रेच से ले आये गए हैं बच्चे
आपनी माओं से विवशताओं की तरह लिपटे
पिता जब देर रात लौटेंगे
सुबह की चिंताएँ साथ होंगी
एक बूढ़ी खाँसी जाग रही होगी तब भी
अपने होने को घोषित करती

नीम की आँखों में
अब भी लौटता है
आंगन का एक एक दृश्य
रात को तनी चारपाई
बाबा का हुक्का, बच्चों का शोर और
परियों के किस्से
जिनसे मीठी होती जाती थी
उसकी डाल की एक एक निम्बोरी

अपने पत्तों के होने की फ़िक्र थी उसे
बखारी में रखे गेहूं की खातिर
नन्ही टहनियों को संजोना था
दुलारी के कान जब छिदेंगे तो
उसके डंठल ही तो उसको रखेंगे पीड़ा से दूर
नए साल पर लालिम कोंपलों को मिलना है
मिश्री से जो माँ परोसेंगी प्रसाद की तरह
हर राहगीर को

उसके खड़े खड़े
आंगन सड़क हुए
और खपरैल ने घुटने टेके
ईंट पत्थर और फौलाद के आगे
गाँव को शहर गटक गया

अभी चीथड़ों में लिपटे कुछ
भूखे प्रेत से दीखते लोग
उसकी जड़ों के निकट
पन्नियों में भरा काला ज़हर
रात के सन्नाटे के साथ पीते रहेंगे
और सुबह से शाम लीलता रहेगा
दुनियावी शोर उसकी आत्मा के एकांत को
पर एक अकेलापन
पसरता रहेगा अमरबेल की तरह उसकी फुनगियों पर

सुबह होगी मगर
इतनी ही कि
पास खड़े अपार्टमेंट के सबसे सूने कमरे में
अपने निपट अकेलेपन में एक बूढा अपनी
बची हुई साँसे खोज सके
और नीम का पेड़
अपने होने के माने

-परमेश्वर फुँकवाल 
२० मई २०
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