अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

निबिया की छाँव
 

 

शीतल-शीतल सी लगी दुपहरिया जिस ठाँव,
नहीं भुलाये भूलती वह निबिया की छाँव!

सखियों की अठखेलियाँ बाबुल का वह गाँव,
रह-रह आती याद है, वह निबिया की छाँव!

जब रोके रूकते नहीं, अल्हड़ता के पाँव,
हुलराती तब गोद ले, वह निबिया की छाँव!

सुनकर मेरी रागिनी, कौवा करता काँव,
खिल-खिल हँसती साथ, में वह निबिया की छाँव!

नाहक ही तो हैं बँधे, बैलों के गरियाँव,
कौन छोड़ सकता भला, वह निबिया की छाँव!

निमकौली के तेल से, डरते पेंचिस-आँव,
दुबके-दुबके ढूँढते, वह निबिया की छाँव!

डर लगता है देखकर, कुटिल विदेशी दाँव,
रहन न हो जाये कहीं वह निबिया की छाँव!

-ओम नीरव
२० मई २०
१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter