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नीम घर के द्वार पर
 

 

आग जैसी
डगर पर, ठंडे पड़ावों से पड़े हैं
नीम घर के द्वार पर माँ की दुआओं
से खड़े हैं

धरा के माथे
दिठौनों से रखे ये छाँव के अलमस्त छौनों से दिखें ये
धूप के सिकते हुये ‘टाइल्स’ पर ‘जूट’ के शीतल बिछौनों से बिछे ये
टोप, पत्तों का धरे सिर पर
लड़ाकों से अड़े हैं

हलों–बैलों के लिये
ठहराव के पल, साथ गुड़ के घुघरी औ रसियाव के पल
थोड़ी झपकी कुछ ठिठोली, घरैतिन संग दोपहर की छाँव के पल
छनके आती किरन गोरे गाल पर
फागुन गढ़े हैं

खेलता बचपन ‘चिगड्डी’
और ‘कंचे’ ओट में इसकी युवामन स्वप्न बुनते
शीत झोंके पाते मेहनत के पसीने बड़े–बूढ़े बैठ बीती बात कहते
छाँह से इसकी बुढ़ापा, जवानी,
बचपन जुड़े हैं

–कृष्ण नन्दन मौर्य
२० मई २०
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