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रे हरे नीम
 

 

रे हरे नीम
तू क्यों उदास

तू सब को देता है छाया
पर जलती है तेरी काया
जग को जो छाया देते हैं
अक्सर ख़ुद
पाते हैं पियास

इस बटिया पर तू बड़ा हुआ
क्या सोच रहा अब खड़ा हुआ ?
कल तेरे कटने की बारी
दीवानों सा
कर अट्टहास

तेरे पत्तों का कड़वापन
घुल गया हमारे अन्तरमन
देखो फिर भी हम हँसते हैं
जीने का
ऐसा है हुलास

पत्ते कड़वे मीठे हैं फल
तेरे प़ाणों में कैसा बल?
जीवन की कटुता से शायद
पैदा होती
मन में मिठास ।

--डा सुधेश
२० मई २०
१३

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