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किसका भय

 

अंगद की तरह
जमाकर अपने पाँव खड़ा
मैं जमा कूट पर
और कूट की तरह अड़ा
मैं हठी और ज़िद्दी स्वभाव का
किसका भय हूँ कुटज
आँधियों की हरकत से भी निर्भय

वनदेवी को अर्पित
पुष्पों के भार सभी
कोई ललचाकर ले तो
उन्हें निहार कभी
मालिन की डलिया की हूँ
दूर पहुँच से मैं
खिलता-बढ़ता कब
उपवन के अनुसार कभी

वन का हूँ नैसर्गिक हूँ
कृत्रिमता! तेरी
अभिलाषाओं के लिए
नहीं है ज़रा समय

मैं धन्वंतरि की पुस्तक में हूँ
सम्मानित
मैं आम दोष का पाचक
रोगों का रिपु हूँ
कटु हूँ स्वभाव-रस में
थोड़ा भी मधुर नहीं
कोई गप कर ले,
रसगुल्ले का कब वपु हूँ

पुष्पों को देख न मेरे
भ्रम में तुम पड़ना
वन के जैसा ही हूँ
रखता हूँ दृढ़ निश्चय

पत्तों को देखो तो
निष्प्रभ-सा दिखता हूँ
पुष्पों को देखो
ज्यों नन्दन-वन का तरु हूँ
कल्पों तक जीने की
मैं सोच नहीं रखता
तुमको इससे क्या मित्र!
कि मैं लघु या गुरु हूँ

धरती पर आकर
राम-कृष्ण कब अमर हुए
सो मैं भी चाहूँ,
रहे कीर्ति मेरी अक्षय

- पंकज परिमल  
१ जुलाई २०१९

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