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ये कुटज के फूल

 

शुष्क हिम की शृंखलाओं में
इक हरापन सा जगाते हैं
लहलहाते ये कुटज के फूल

कर रहे साकार हो जैसे
पत्थरों की भावनाओं को
झूमते उल्लास से भरकर
भूलकर सारे अभावों को

साथ इन शीतल हवाओं के
गीत मौसम के सुनाते हैं
गुनगुनाते ये कुटज के फूल

चोटियों से इन शिवालिक की
कर रहे संवाद तारों से
हर रहे अवसाद जीवन के
अनकहे मीठे इशारों से

जोड़कर ये डोर परिचय की
प्रेम के रिश्ते बनाते हैं
मन लुभाते ये कुटज के फूल

तोड़कर इन कंदराओं को
नित्य जल की बूंद पीते हैं
उधड़ती साँसों की सीवन को
खुद के हाथों रोज सीते हैं

मुश्किलों के साथ जीने की
कला ये सबको सिखाते हैं
मुस्कुराते ये कुटज के फूल

लौटते हैं साथ मौसम के
जब अषाढ़ी बादलों के दल
लाँघकर दीवार सदियों की
लौटता फिर यक्ष वह अविकल

फिर उसी अहसास को जीकर
प्रेम के आखर सजाते हैं
थरथराते ये कुटज के फूल

- मधु शुक्ला  
१ जुलाई २०१९

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