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उद्यमशील कुटज हूँ

 

मैं जितना भू के ऊपर हूँ
कहीं अधिक भू के भीतर हूँ
नन्हाँ उद्यमशील कुटज हूँ

कड़ी धूप में रहा उपेक्षित
शीश-छत्र मैं बन ना पाया
लेकिन गुणकारी औषधि बन
मन ही मन में मैं हर्षाया
पाषाणों के हृदय टटोलूँ
मैं मनमौजी किंतु सहज हूँ

काली बंजर चट्टानों के
आँचल में तारों सा दमकूँ
नहीं राजसी गमले भाते
मैं तो वन के मन में महकूँ
हर कठिनाई में मुस्काऊँ
हठी अनाद्रित छुद्र वनज हूँ

विषम परिस्थिति की भट्टी में
हर दिन जल-जल कर जीता हूँ
अश्रु, स्वेद, अंतर की पिघलन
जिजीविषा से नित पीता हूँ

काले नग गज झुण्ड सदृश हैं
मध्य गूँजती सिंह-गरज हूँ

- गरिमा सक्सेना 
१ जुलाई २०१९

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