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मैं कुटज हूँ

 

हो सका कब मैं पराजित
युद्ध में अभियुक्त हूँ

चीरकर पाहन का सीना खाद मिट्टी के बिना
अथक ऊर्जा बाहुओं में धरा के सिर ताज पहना
है विरल अस्तित्व अपना
परंपरा विमुक्त हूँ

मीत है कोई न संग में संकटों का जाल जग में
हो विषम प्रतिकूल मौसम सरजना जीवन सहज में
जलद-कर्पूरी के अनुपम
नेह का अभ्यस्त हूँ

हैं जड़ें इस्पात की ज्यों पत्थरों को मोम करतीं
फोड़कर पाताल जल को खींच लातीं तन सरसतीं
साधना का ज्ञान है पर
साध्य से संपृक्त हूँ

प्राण में संजीवनी है हृदय में उल्लास मेरे
वीत रागी मन सुदृढ़ है कभी भी इत-उत न हेरे
हूँ जितेंद्रिय, सिद्ध भी हूँ
श्रम कला संयुक्त हूँ

पाँव हैं पाताल में फिर भी मैं नभ को चूमता हूँ
गोद में पर्वत के मैं अलमस्त होकर झूमता हूँ
है हवा मुझ को लुभाती
मोह माया मुक्त हूँ

शस्य श्यामल पात‌ अपने पुष्प हिमगिरि श्वेत सपने
ब्रह्ममय आकाश अंतर समा बैठा मंत्र जपने
जन्म ले इहलोक में
मैं लोक से विरक्त हूँ

- डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव
१ जुलाई २०१९

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