मुकम्मल सी कोई गज़ल सामने है
ये खिलता हुआ इक कमल सामने है
पहेली ने खुद हँस के तुझको छुआ है
सवालों को क्यों ले के बैठा हुआ है
सवालों का जब एक
हल सामने है
किए जो भी वादे वो तूने निबाहे
बढ़ा प्यास तू आज कितनी भी चाहे
तुझे फ़िक्र क्या जब कि
जल सामने है
यो बाँहों के झूले यहीं झूल जा तू
जो बीता हुआ है उसे भूल जा तू
गँवा मत उसे जो ये
पल सामने है
जो सोया हुआ है उसे तू जगा ले
जगा ले उसे फिर गले से लगा ले
हकीकत है तेरी न
हल सामने है
-- कुँअर बेचैन
२१ जून २०१० |