|
चाहती तो हूँ |
|
कमल के पत्ते पर
ओस की बूँद है तू,
सुबह की नींद से तल्लीन
मुझे बुलाती हुई।
दिल पर एक चाबुक-सा पड़ता है,
जब तुझे छोड़कर जाती हूँ।
तेरे घाव पर
रुई का फाहा बन जाना
चाहती हूँ मैं,
कि एक और जहान तुझे
कहीं से ला दूँ।
काश, हड़बड़ी न होती
दफ्तर न होते, होते हम कोई और,
कमल ताल में
पत्तों में छिपकर आँख मिचौनी खेलते।।
मैं ढूँढती तुझे पाती
तू ढ़ूँढ़ती, मुझे,
पहाड़ों के ऊपर से,
नीलाँचल में बसा
वो गाँव दिखाती
जहाँ से, प्यार आता है।
यह होम-वर्क तू क्या ले बैठती है हर समय,
हमें समय रहते कहीं भाग चलना है
साँची के स्तूप पर
या सागर किनारे की दोपहर में
जहाँ लहरें गाती हैं अनवरत संगीत
तू क्या करती है ये सवाल-जवाब? चलो वहाँ
जहाँ सारे जवाब सामने होते हैं, हमें महज़
ताड़पात्रों में अटके प्रश्न उतार लेने होंगे।
-- --इंदिरा मिश्र
२१ जून २०१० |
|
|
|