अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

तीन मुक्तक

   
कीचड़ में ही जन्म लिया और कीचड़ से ही जीवन श्वास को पाया,
कीचड़ मे ही हुआ मैं विकसित और कीचड़ से ही मिली यह काया,
कीचड़ में ही पनपा पर उसकी कुरूपता और अवगुणों से रिक्त रहा -
प्रेरणा पल पल लेकर सूर्य की किरणों से श्वेत वर्ण मैंने उनसे पाया।


मेरे अस्तित्व से मिली घर को रौनक, घर के स्वामी का मन हर्षाया,
मेरी जड़ों ने बनकर कमल ककड़ी, गृहिणी की रसोई को महकाया,
कीचड़ के संग रहा और कीचड़ के संग मेरा बचपन बीता फिर भी -
नाम मिला कमल और लक्ष्मी जी के शुभ चरणों में स्थान मैंने पाया।


जीवन उसका सुधर गया जिसने मेरे जीवन को शिक्षा स्त्रोत बनाया,
अच्छे बुरे संग से अनभिज्ञ रह जिसने सिर्फ़ अच्छाइयों को अपनाया,
माना कि जन्म और परवरिश का एक अभिन्न स्थान है जीवन में पर -
जो निर्भर रहा आत्मविश्वास पर, प्रभु चरणों में स्थान उसी ने पाया।


हरिकृष्ण सचदेव
२१ जून २०१०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter