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कमल के बहाने... |
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कैसे कह दूँ रूप तुम्हारा,
जैसे कोई खिला कमल है,
कैसे कह दूँ रंग तुम्हारा,
चाँदी-सा कोई चंद्रकमल है,
नीलकमल आँखें हैं तेरी,
रक्तकमल तेरा शृंगार,
कमलनाल की लोच लिए,
आमंत्रित करती हो अभिसार
गोधूलि -बेला में तेरे-
कर-कमलों में दीप सजे,
कमलपात पर किसी बूँद-सा,
ठिठका-सा एक स्वप्न- जगे
ये बिंब मेरे सब झूठ हुए-
ईंटों से बुनते शतदल में,
खो गई जागीर कमल की-
कंक्रीटों के जंगल में ।
कहाँ गए वो पोखर-गागर,
कहाँ गए वो ताल-तलैया,
मेढक-कछुए-झींगुर-जुगनू,
गिल्ली-डंडा, ता-ता-थैया,
घूँघट के कंज-पदों से मह-मह,
क्यों घाट सुहाने टूट गए?
चूड़ी से छुप चुगली करते,
मटके किससे फूट गए ?
अब धुँआ-धक्कीड़ शोर बहुत है,
बगुलों के ठिकानों पर,
मासूम मछलियाँ कैद हुई-
इन ऊँचे मकानों पर
जल रहा हरेक कमल है,
चुप है कोयल बागों में,
ये सब हमको दिखा करेंगे,
बच्चों की किताबों में
-- अमित कुलश्रेष्ठ
२१ जून २०१० |
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