कचनार वो फूल है
प्यार जिसका सभी को कबूल है
कचनार रात की रानी नहीं
दिन का राजा भी नहीं
कचनार कीचड़ में भी नहीं खिलता
कमल की तरह वो पूजा में भी नहीं चढ़ता
पर औषधीय उर्जा से भरपूर है
लाभ देता भरपूर है
पर फूल को नहीं ज़रा भी गरूर है।
नेह में स्नेह में
गूँज में स्वर में
लहरी में गहरी है
उसकी काया
जिसने कचनार को चमकाया।
सबका प्यारा और दुलारा बनाया
गीतों में रचाया बसाया
लोक में जन जन तक पहुँचाया
जिसमें सबको रस आया सबने पहचाना
कचनार का फूल यह
देख कर मुस्कुराया
उसको दुनिया ने
किसी भी हाल में नहीं भरमाया
और कचनार की कली?
अपने में मग्न
अपने रस में ही बही।
अविनाश वाचस्पति
१६ जून २००८
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