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कहाँ उगाऊँ हरसिंगार

 

कहाँ उगाऊँ हरसिंगार

बचपन में पौधा रोपा था,
भीगे भीगे सावन में।
बरसों बाद खड़ी हूँ फिर से,
यादों के उस आँगन में।

पारिजात का पौधा है यह,
माँ ने यही बताया था,
मुरझाएगा,बार बार मत,
छुओ,यही समझाया था।
सुनी अनसुनी कर देती थी,
सहलाती थी क्षण-क्षण में।

नन्हा पौधा बड़ा हो गया,
कलियों से गुलजार हुआ।
सारा आलम लगा महकने,
हर दिन हरसिंगार हुआ।
तना हिलाती ढेरों पाती।
भर लेती थी दामन में।

स्वर्ग लोकसे भू पर भेजा,
इसे कौन से दाता ने,
श्वेत पंखुरी, केसर डांडी,
कैसे रचाविधाता ने।
रात को सोता कली रूप में,
सुबह जागता यौवन में।

अब न रहा वो गाँव न आँगन,
छूट गया फूलों से प्यार।
छोटे फ्लैट चार दीवारें,
कहाँ उगाऊँ हरसिंगार।
खुशगवारयादों का साथी,
बसा लिया मन उपवन में।

-कल्पना रामानी
१८ जून २०१२

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