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शेफाली से सुमन न झरते

 
यद्यपि अपनी चेतनता के
बन्द कपाट किये हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की
फिर भी घिर-घिर आती

पास अँगीठी के बतियाती
बैठी रहतीं रातें
दीवारों पर काँपा करती
लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते
राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी
शेष रही कुछ स्याही
आँधी, पानी, तूफानों ने
लेख मिटा डाले वे
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर
अब भी मुझ तक आती

बजती थी कुछ दूर बाँसुरी
चीड़ों के घन वन में
जिसकी अनुगूँजें उठतीं थीं
कुहराई घाटी में
सीमान्तों की चुप्पी अंकित
जिसके मधुर क्वणन में
मोती ढरकें रात-रात भर
दूबों की पाटी में
पर किस शीशमहल में बन्दी
अब वे सब झंकृतियाँ
जिनकी गूँज कहीं से
मेरे कानों में भर जाती

दरवाजों से या खिड़की से
घुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की
थकी-थकी आलापें
शेफाली से सुमन न झरते
ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं चहकतीं
मौसम की पगचापें
सूखी वे रंगीन पँखुरियाँ
पड़ीं धूल में होंगी
उनकी छुवन अकेलेपन में
अब भी क्यों सिहराती

-डॉ. राजेन्द्र गौतम 
१८ जून २०१२

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