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हरसिंगार इस बार

 

झर झर झर झर...
सुबह-सुबह
अपने द्वार पर खड़ा मैं बावरे हरसिंगार का झरना देख रहा था
कैसे हैं से फूल
कब इनका बचपन शुरू हुआ
कब इनकी जवानी आई
कब ये अपने जीवन-वृतं से झरने लगे
पता ही नहीं चलता
लगता है ये सभी
एक-दूसरे में समाए हुए आते हैं
और अपनी महक से रात को पागल कर
भोर में धरती पर बिछ जाते हैं
हँसी की बूँद-बूँद की तरह
मन एक अवसाद से भर गया
कैसा है इनका जीवन?


एकाकए लगा
जैसे फूल खिलखिला रहे हों
और उनसे एक भीना-भीना स्वर उठ रहा हो-
’क्यों हमारी चिंता करते हो मानुस भाई?‘
हम पूरी शिद्दत के साथ हँसते हुए
एक पल आते हैं
दूसरे पल चले जाते हैं
और इसी थोड़े समय में
हम जी लेते हैं अपना पूरा जीवन
हम मुरझाकर नहीं जीना चाहते
यह तो तुम लोग हो कि
चुकी हुई बीमार उम्र के आखिरी पल तक को
पकड़े रहना चाहते हो कराहते हुए
और डरते रहते हो कि
पता नहीं कब जाना पड़ जाय
और जाते हो तो
तुम्हारे चेहरे पुते होते हैं
मातमी स्याही से
और हमें देखो...‘

हाँ, मैंने देखा
झरे हुए फूल हँसी में नहा रहे थे
और एक उत्सव-सा जाग रहा था नई धूप में।

रामदरस मिश्र
१८ जून २०१२

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