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गुलमुहर की छाँव में

 
गुलमुहर की छाँव में, जो गा रहे हैं
दर्द को भी कला से
बहला रहे हैं

क्या हुआ जो नदी भी प्यासी यहाँ है
स्वेद के घर में उदासी भी यहाँ है
प्यास जाये या न जाये
भाषणों के मेघ तो
बरसा रहे हैं

वे अनावृत देह की पेंटिंग बनाते
भूख की तस्वीर से घर को सजाते
भूख जाये या न जाये
आंकड़ों की फसल तो
लहरा रहे हैं

नींद में उनकी खलल कोर्इ न डाले
नहीं दंगों की लपट उन पर उछाले
तिमिर जाये या न जाये
दूधिया विद्युत से घर
चमका रहे हैं

वे पड़ोसी चीख को उलझन समझते
गोलियों से देश की किस्मत बदलते
दर्द जाये या न जाये
कागजी त्योहार घर-
घर ला रहे हैं

- राधेश्याम बन्धु
१६ जुलाई २००६

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