विश्व का शृंगार करने
आज गुलमोहर खिला है
जेठ की निर्वसन राका
छा रही उन्माद बनकर
गर्म साँसों की हवा में
चुंबनों के भाप सुखकर
प्रेम की मदिरा में डूबे
मिल रहे आकुल अधर हैं
चिर मिलन की प्यास लेकर
बाँह में सिमटी प्रकृति से
अनवरत अभिसार करने
आज गुलमोहर खिला है
नींद से बोझिल पलक में
स्वप्न बनकर नाचती तुम
रात के अंतिम पहर में
प्रेम कविता बाँचती तुम।
फिर विदा होते समय
तुमने कहा यह फूल ले लो
झुक गई रतनार डाली
और मैं समझा तुम्हारे
प्यार का उपहार लेकर
आज गुलमोहर खिला है
- प्रियव्रत चौधरी
१६ जून २००६ |