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देवदारु तो कवि होता है
 

तन का साधक,मन का मादक
देवदारु तो कवि
होता है

तम पीकर खोजे उजियारा
परछाईं से कभी न हारा
दुर्गम शैल -शिखा पर जीता
अमृतमय जीवन-रस पीता

अन्तस की निर्मल घाटी में
सृष्टि-मात्र की छवि
होता है

ऊपर-ऊपर हरा-हरा है
भीतर प्यासा जलधि भरा है
निष्फल कर्म धर्म का योगी
मानस के लड्डू का भोगी

जग-कल्याण हेतु नित होते-
होम, हवन का हवि
होता है

चट्टानों को चीर उगा है
यह पत्थर का सगा-लगा है
शीश हमेशा तना रहा है
आँधी, आतप, शीत सहा है

सुघर भोर का आराधक तो
प्रातकाल का रवि
होता है।

- उमाप्रसाद लोधी
 
१५ मई २०
१६

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