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देवदार मुखिया होता है |
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हर
उस ज़िन्दा कुनबे का, जो
जाने वैभव क्या होता है,
देवदार मुखिया होता है ।
घर-घर का तब साझा चूल्हा
घर-घर आग दिया करता था
मिलजुल ताप सहा करते थे
मौसम भी बढ़िया करता था
पर्वत का 'परिवार' भला था
सम्बन्धों की हरियाली में
आँगन-द्वार हँसा करते थे
पुलकित गाँव जिया करता था
देवदार चुप सोच रहा, फिर
हासिल क्यों घटिया होता है ?
सम्बन्धों के नाम स्वार्थ का
खुला खेल है, चाव नहीं है
अपने थे जो, वितरागी हैं
आपस में समभाव नहीं है
बीती बातें बादल-बादल,
कुहा-कुहा-सी फैल रही हैं
नये ढंग के बर्तावों में
आलोड़न का ताव नहीं है
नये ज़माने के ढब में क्या
जन मन से दुखिया होता है ?
देवदार संदर्भ सहेजे
वर्त्तमान को देख रहा है
आपसदारी, लेना-देना,
आखर-पाई, लेख रहा है
क्या होता है जगत-निभाना
ढहता मान बचाने में -
चाहत ’मीन’ सदा ही होती
सुलभ सदा ही ’मेख’ रहा है
जो निभ जाये वही नियामत
वर्ना तो बकिया होता है
- सौरभ पाण्डेय
१५ मई २०१६ |
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