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देवदार के वृक्ष
 

संत सरीखे खड़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

पर्वत-पर्वत, शिखर-शिखर पर घाटी-घाटी में
बूटे जैसे जड़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

मौन पर्वतों के मन के
कोमल उदगारों से
खड़े हुए स्वागत में जैसे
वन्दनवारों से

अठखेली कर रहे मेघ के भीगे फाहों से
नभ के आँगन बड़े हुए हैं
देवदार के बृक्ष

देखा अब तक चित्रों में था
पढ़ा किताबों में
देखा अब साक्षात तो पाया
खुद को ख्वाबों में

मन्त्र मुग्ध हो गया ह्रदय निःशब्द हुयी वाणी
तस्वीरों से मढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

समाधिस्त से खड़े हुए हैं
निरत साधना में
पत्र, फूल, फल, गंध चढ़ाते
नित उपासना में

गुँजा रहे घाटी को अपने मंत्रोच्चारों से
देवों के ज्यों गढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

उभर रहे आकार कई
पल-पल आभासों के
पलट रही हैं पृष्ठ कथाएँ
फिर इतिहासों के

कालिदास के विकल यक्ष की प्रेम भरी पाती
आखर-आखर पढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

- मधु शुक्ला  
 
१५ मई २०
१६

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