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देवदारु से ऊँचे सपने
 

देवदार से ऊँचे सपने
घास सरीखे काम
शिखरों की ले चाह
रोज हम करते बस आराम

उजियारे की राह देखते
ओढ़ लिए अँधियारे
सपनों में ही छू आये हम
सूरज चाँद सितारे

पड़े हुए हैं चादर ओढ़े
सबके दाता राम

छींका टूटेगा, बैठी है
भाग्य भरोसे बिल्ली
दूर पास से किसको मतलब
हमें न जाना दिल्ली

भाषा भूल चुके कर्मों की
चिंतन है अविराम

लगी हुई है आग, झुलसते
हैं अब सपने सारे
देखो कैसे जले जा रहे
देवदार बेचारे

सपनों के जंगल में फैला
लालच का कुहराम

- डॉ. प्रदीप शुक्ल  
 
१५ मई २०
१६

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