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बेला की गंध
 

मेरी साँसों में अब तक
बेला की गंध भरी
मेरी यादों में रहती
वह अल्हड़ दोपहरी

काले केशों पर आकर
बेला जब इतराता
मन के कोने में
बहुरंगी सपने भर जाता

कामदेव को रति लगती
सकुचाई, डरी-डरी

घूँघट के पट सहसा
अपनी मर्यादा खोते
प्रेम-देह की आशाओं के
पंख लगे होते

दग्ध- साँस से कुंदन बनती
अपनी प्रीति खरी

- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
१५ जून २०१५

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