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इतने दिन कहाँ रहे
 

सूखी नदिया, सूखे नाले
सूख गये सब गात
तुमने कैसे जान बचाई
सह इतने आघात

धरती तपती हवा तप रही
ताप के मारे हो जाते गुम

वेणी में सजते हो बेला
महका करता तन मन
बिखराते हो गँध मनोहर
मत्त हो रहे प्रियजन

कलियों में लिख गँध की पाती
प्रणय निवेदन सेतु बने तुम

तेरे से होकर आती वो
पवन कहे उनका आना
नथुनों से उनकी बेला तुम
गुपचुप उर में उतर जाना

कोमल पँखुरियों के संग क्या
स्वेत वसन वैधब्य सहे तुम

- सुरेश पांडा
१५ जून २०१५

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