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बेला महका और खिला
 

पग पग पर जीवन में
बेला महका और खिला

व्याकुल बाँहों के इंद्र धनुष
कम्पित होकर बहके
युग की प्यास बुझाने को
जब अंगारे दहके
बहुत दिनों के बाद कोई
फिर मन से आज मिला
पग पग पर जीवन में
बेला महका और खिला

गज़रा जूड़े में बाँध दिया
इक गंध कथा रच ली
मादक, मोहक, मदिर नदी
थी पोर-पोर मचली
बीते तपन उदासी के पल
जब पाहन पिघला
पग पग पर जीवन में
बेला महका और खिला

बाँध लिया है छवियों को
सौ सौ सौगंधों में
खिले हुए पल थिरक रहे
नेहिल अनुबंधों में
देख यामिनी की आकुलता
हँस कर दिवस ढला
पग पग पर जीवन में
बेला महका और खिला

- शरद कुमार सक्सेना
१५ जून २०१५

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