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गंध मोगरे की
 

जब जब देहरी जगे विरह में
दोहराए वादों को
गंध मोगरे की हर लेती
मन के अवसादों को


ज्यों ज्यों तपे व्यथा का सूरज
पल्लव लगें चटकने
देवदूत सा धवल मोगरा
ठंडक लगे परसने

खुशबू में धर कर लाता है
छूटे संवादों को

ज्यों ज्यों पिए चांदनी कलियाँ
हवा बहकती जाए
झोकों में इक अजब खुमारी
खिड़की से घुस आये

करे मोगरा नृत्य नयन में
भर जाए यादों को

- संध्या सिंह
१५ जून २०१५

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