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बेला फिर महका है
 

बालों में गजरा है
पायल है पाँव में
बेला फिर महका है
यादों के गाँव में

आँगन–गलियारे की
मेले व हाट की
थोड़ी सी छेड़छाड़
हल्की सी डाँट की
लोग लगे थे कितना
लगी के बुझाव में

तुम खातीं, हम छीला
किये मूँगफलियाँ
बिजली के तार छुये
छू गयीं उँगलियाँ
सोना था मोल मिला
माटी के भाव में

जूड़े में छिटक गयी
अँजुरी भर चाँदनी
आँखों ने, साँसों ने
पी जी भर चाँदनी
कई चाँद खिले अमा–
वस्या की छाँव में

– रविशंकर मिश्र “रवि”
१५ जून २०१५

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