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बेला कैसे रह लेते हो
 

आग हुये मौसम में
इतने हरे-हरे
बेला कैसे रह लेते हो।

लू को पींगें कर
मस्ती में मन की
लेते झूल
फक्कड़ जोगी सा
मुस्काते
धूप ताप सब भूल

खरुश थपेड़े सह भी
मीठी गंध भरे
बेला कैसे रह लेते हो।

नदी रूख उडुगन
सबका ही
उड़ा-उड़ा है रंग
दिखलाये जब से
दिनकर ने
तानाशाही ढंग

भीत समय में
तुम ऐसे निर्द्वंद अरे
बेला कैसे रह लेते हो।

कबिरा के जैसे
इकले ही
ढाई आखर बाँच
ठीक चलन से उलट
कह रहे हो
ज्यों साखी साँच

भाँड़ हुओं में
टटके, खाँटी और खरे
बेला कैसे रह लेते हो।

- कृष्ण नन्दन मौर्य
१५ जून २०१५

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