अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बगिया में बेला
 

सुंदर कोमल श्वेत धवल सा
फूल रहा बगिया में बेला

लू के गरम थपेड़ों से वो
तपता रहे दुपहरी भर
हुई चाँदनी रात खिले फिर
हर्षित मन से मुस्का कर

कभी न लगता उसे देख कर
कितनी गरमी है वो झेला

रूप गन्ध से ये सबका मन
रोज शाम को मोह रहा
मानो हो व्याकुल गरमी से
मन की गाँठें खोल रहा

गरमी के सारे फूलों में
वो छा जाये खूब अकेला

मंदिर में शिव के चढने को
हार बने पूजा पावन का
और कभी सज बालों में
श्रृंगार बने वो सुरबाला का

फिर मनुहार करे प्रियतम से
महका कर संध्या की वेला

खुश है वो अपने गुलशन में
चंपा और चमेली संग
झुक जाता है संग हवा के
सहज सरल जीवन का ढंग

दिखता सबसे अलग-थलग सा
पुष्प बहुत है ये अलबेला

- बसंत शर्मा
१५ जून २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter