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महक उठी बेला
 

बेला की फुनगी पर बैठी
गौरैया ने
पर खोले हैं

महक उठी बेला की खुशबू
कुंज गलिन में बसी हुई है
चाहत झोली में भरने की
जैसे मुखरित आज हुई है

हरी घास पर पड़े हुये हैं
पीत पत्र भी
कुछ बोले हैं

शीशे जैसी धूप सुनहरी
पंखुरियाँ प्रतिबम्बित करतीं
आज कुमुदनी जल के भीतर
कुछ हँस कर किल्लोलें करती

मधुमक्खी कुछ है बौरायी
शहद परों में
अब घोले है

- आभा सक्सेना
१५ जून २०१५

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